नित्य संदेश डेस्क. हमारे देश में कानून व्यवस्था बहुत लचर है। वह इतनी लेट लतीफ और विसंगतियों से भरी है कि एक बार जो व्यक्ति कानून के पंजे में जकड़ा जाए तो उसका आर्थिक, मानसिक, दैहिक शोषण होगा ही होगा, यह तय है। हमारे देश के कानून में औरत और पुरुष के लिए भी असमानताएं स्पष्ट दृष्टिगोचर है। मेरी कहीं इन सब बातों की पुष्टि अभी-अभी घटित अतुल सुभाष के केस से होती है।
अतुल सुभाष जो बैंगलोर निवासी, इंजीनियरिंग डिग्रीधारी, महिंद्रा ऑटो में ए आई इंजीनियर के रूप में कार्यरत थे। उन्होंने अपने आपको खुद पर लगे दहेज प्रताड़ना के केस में, औरतों को मिले अधिकार और देश की कानून व्यवस्था के आगे इतना तुच्छ पाया कि जीवन जीने से अधिक आत्महनन को सरल समझा। उन्होंने खुदकुशी से पहले एक 24 पन्नों का नोट लिखा और 90 मिनिट की आपबीती वीडियों बनाई थी। जिसमें उनके साथ क्या हुआ उसका ब्योरा है। वह खुद अपनी मृत्यु की हफ्तों पहले तैयारी करते है। यहां आप और हम सोच सकते है कि वह व्यक्ति अपने आपको मिल रही मानसिक यातनाओं से किस कदर टूटा हुआ पा रहा होगा।
अतुल सुभाष, बैंगलोर की शादी निकिता सिंघानिया, जौनपुर उ.प्र. से हुई थी। वह स्वयं पढ़ी लिखी, एसेंचर में जॉब करती थी। दोनों के वैवाहिक जीवन में आपसी व्यवहार के न मिलने से अनबन इतनी बढ़ गई कि पत्नी निकिता ने घर छोड़ दिया और जौनपुर आकर रहने लगी। भारतीय कानून में महिला को मिले अधिकार के हथियार का उपयोग करते हुए उसने अतुल पर दहेज का मुकदमा दर्ज करवा दिया। साथ में अतुल के परिवार वालों को भी सम्मिलित अपराधी बनवा दिया। यहां सोचनीय है कि विवाह की अनबन तो पति पत्नी की थी तो आखिर क्यों एक लड़की के कहने पर दहेज प्रताड़ना केस पूरे परिवार पर लगता है।
आगे अतुल बैंगलोर के रहवासी थे और उनका केस जौनपुर, उत्तर प्रदेश की कोर्ट में चल रहा था। क्यों औरत को यह अधिकार है कि वह चाहे जहां बैठकर दहेज का केस दायर करवा सकती है? अतुल अपने आत्महत्या पत्र में लिखा भी है कि वह 24 महीने में 120 बार सुनवाई की तारीखों पर जौनपुर गए थे। यहां हम समझ सकते है कि कोर्ट द्वारा कैसे तारीख पर तारीख देकर केस को टाला जाता है और साथ ही एक कामकाजी आदमी का कितना समय व अर्थ, व्यर्थ चला जाता है। वह आगे-आगे की बढ़ती तारीखें भी इस डर से लेने गया होगा कि चाहे कानून सुनवाई में देर पर देर करे पर उपस्थित न होने पर अपराधी जरूर सिद्ध कर दिया जाएगा। अतुल ने इस टेक्नीकली युग में वीडियो कॉन्फ्रेसिंग से जरिए पेशी की मांग भी की जो होल्ड पर ही रखी गई। मतलब, यहां भी हमारे देश के कानून ने उस पुरुष की मदद नहीं की।
वह आगे बताते है कि अदालत के आदेश के बाद वह अपनी एम एन सी में कार्यरत पत्नी को 40 हजार रुपए महीना दे रहे थे जो उनके 4 वर्षीय बच्चे की परवरिश के लिए तय था पर उस बच्चे की शक्ल पिछले तीन साल से अतुल को दिखाई भी नहीं गई थी। यहां सवाल है क्या देश के कानून में पिता के अधिकारों का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए?
40 हजार रुपये में पत्नी निकिता अपने बच्चे 4 वर्ष के बच्चे की परवरिश नहीं कर पा रही थी इसलिए उसने यह रकम को बढ़वाने के लिए 1 लाख भरण पोषण की अर्जी कोर्ट में डाली हुई थी। सोचने की बात है कि क्या चार साल के बच्चे का खर्च इतना भी होता है? निकिता सिंघानिया, अतुल सुभाष से केस खत्म करने के एवज में तीन करोड़ रुपए की राशि चाहती थी। यहां क्या न्यायधीश को अर्जी डालने वाली औरत का लालच नहीं दिखा? यहां यह स्पष्ट पता चलता है कि निकिता का उद्देश्य अतुल को अधिक से अधिक परेशान करने का बन गया था। वह कानून में मिले अधिकार को हथियार बनाकर उसकी जेब पर डाका डालने की मंशा रखती थी। आखिर क्यों जज और वकील ऐसे समय में नैतिकता को भूल जाते है और फरियादी को सही सलाह नहीं देते?
इतना ही नहीं अतुल ने न्यायालय की एक बहस को बताते हुए लिखा कि जब कोर्ट में उन्होंने जज साहिबा से कहा कि "एन सी आर बी के आंकड़े बताते है कि देश में फर्जी दहेज मुकदमों की वजह से प्रतिवर्ष कितने आदमी आत्महत्या कर लेते है तो उनकी पत्नी ने कहा कि "तुम भी क्यों नहीं कर लेते?"
इस पर जज साहिबा हंसी और उनकी पत्नी को बाहर जाने को बोल दिया। यहां प्रश्न उठता है कि क्या महिला जज को निकिता का तेज तरार्रपन नहीं दिखा होगा? यहां पर महिला जज ने एक महिला का साथ दिया पर उसे फटकार नहीं लगाई।
अतुल केस बंद करने की मांग जज साहिबा से की लेकिन जज साहिबा तीन करोड़ देने का कहती है पर जब अतुल इतने पैसे न देने की बात कहता है तो उसे पांच लाख रुपये में मामला सेटल करवाने का कहती है। क्या जज का रिश्वत की मांग करना जायज था। आखिर कहां जा रहा है हमारे देश का कानून। इससे बढ़कर अतुल ने लिखा है कि वह अपने ही दुश्मनों को, खुद के ही विरूद्ध कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए प्रतिमाह पैसे दें रहा है। वह इसे अब बिल्कुल नहीं सह पा रहा है। हम और आप यह मनोस्थिति समझ पा रहे है पर फेमनिज्म़ की शिकार पत्नी, जज साहिबा नहीं समझ पाई। वह कानून की आड़ में एक आदमी को शोषित करते रहे। ऐसी स्थिति से हार मानकर ही अतुल सुभाष ने अपने आत्महनन का प्रण किया जो अपने ही अंत का प्रण था।
उसने अपने अंत से पहले एक व्यवस्थित सूची बनाई कि बारी बारी से उसे आत्महत्या को कैसे अंजाम देना है। किस कागजात पर साइन करना है। किसे-किसे मेल करने है, राष्ट्रपति को चिट्ठी भेजनी है। स्नान करना है, 101 ॐ नमः शिवाय का जाप करना है, दरवाजें बंद करना है पर खिड़कियां खुली रखनी है। ताकि कोई देख भी ले तो मरने से विचलित न कर सके। उसने अलग-अलग फोल्डर बनाकर, कहां क्या अपलोड करना है, कहां लिंक देनी है। सोशल मीडिया पर वीडियों बनाकर अपलोड करना है जैसी सब बातें सूचीबद्ध की थी और अंत में एक कविता लिखी और बाद में उस सूची के जरिए एक के बाद एक काम निपटा लिए और अंत कर लिया खुद का... सब शांत, सब समाप्त।
हमने इस घटना से पहले किसी को इतनी तैयारी से आत्महत्या करते कभी नहीं देखा और न ही सुना। यहां अतुल सुभाष की आत्महत्या ने 54 साल में महिलाओं को सम्मान देने के लिए बनाए गए दहेज प्रताड़ना कानून की एकतरफा खामियों को उजागर कर दिया है। आज भारत में ऐसे केसो में फंसे पुरुष आर्थिक, मानसिक, शारीरिक रूप से प्रताड़ित हो रहे है पर इस कानून का दुरुपयोग कर रही लगभग अस्सी प्रतिशत अति चालाक महिलाएं बाज नहीं आ रही। यह महिलाओं द्वारा मचाए घरेलू आतंक की श्रेणी में आना ही चाहिए। इस दहेज प्रताड़ना विरोधी कानून में व्याभिचारी पुरुष हो जरूरी तो नहीं, स्त्री भी गलत हो सकती है जिसकी जांच करकर ही ऐसे केस दर्ज होने चाहिए। इस कानून में स्त्री पक्ष के साथ पुलिस, वकील और जज एक ऐसा आतंकित करने वाला जाल बिछाते है जिसमें फंसा पुरुष और उसका परिवार पूरी तरह अपनी प्रतिष्ठा धूमिल पाता है। जो विचारणीय होना चाहिए।
इतना पढ़ा लिखा इंजीनियर अतुल सुभाष खुद के ऊपर 9 फर्जी मुकदमों से हार गया। हमारे देश में कुछ समय बाद इस मामले को भूला दिया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। हमें इस केस को कानून दुरूस्त करने की दिशा में दीपक समझना चाहिए।
अब दहेज कानून की विसंगतियों को दूर किया जाना अति आवश्यक हो चुका है। जिससे पुलिस, वकीलों के पास जाने से पहले ऐसी महिलाएं खुद मनन करने वाली बनेगी। यहां मेरा कहने का मतलब यह बिल्कुल नहीं कि वास्तविक रूप से शोषित महिलाओं को न्याय न मिले पर कानून का दुरूपयोग करने वाली तेज तर्रार, गलत मंशा रखने वाली महिलाओं के खिलाफ भी कड़ी से कड़ी कार्यवाही होना जरूरी है। अगर ऐसा होता है दहेज कानून का मखौल बनाकर रख देने वालों को सबक मिलेगा। ऐसी महिलाएं अकारण पुरुषों का जीवन बर्बाद नहीं कर पाएगी और फिर दहेज प्रकरण में फंसा कोई पुरुष अतुल सुभाष नहीं बनेगा।
जब बार-बार सर्वोच्च न्यायालय भी बोल रहा है कि “दहेज विरोधी कानून परेशान करने का हथियार बन रहा” तो इस प्रकरण से कोई नया फैसला लिखा जाना आवश्यक हो गया है।
लेखिका
सपना सी.पी. साहू 'स्वप्निल'
इंदौर (म.प्र.)
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