नित्य संदेश ब्यूरो
मेरठ। नेपाल केसरी, राष्ट्रसंत, मानव मिलन के संस्थापक जैनमुनी डॉ. मणिभद्र मुनि महाराज ने कहा कि हम जब भी किसी मंदिर में जाते हैं, तो हमारा उद्देश्य सामान्यतः भगवान की पूजा और आशीर्वाद प्राप्त करना होता है।
मंदिर का स्थान विशेष रूप से शांति, पवित्रता, और आत्मिक उन्नति का प्रतीक माना जाता है। हालांकि, बाहरी रूप से हम अपनी वेशभूषा साधुओं जैसी करके मंदिर जाते हैं, परंतु वास्तविक परिवर्तन और आत्मिक उन्नति तब ही संभव है जब हमारा मन भी मंदिर की तरह पवित्र और शांत हो। जैनमुनि डॉ श्री मणिभद्र मुनि जी महाराज दिल्ली में आयोजित धर्मसभा में उपस्थित गणमान्य व्यक्तियों को संबोधित कर रहे थे।
डॉ. मणिभद्र मुनि महाराज ने कहा कि मन को मंदिर बनाना, अर्थात् उसे पवित्र, शांत, और आत्मनियंत्रित बनाना, कोई आसान कार्य नहीं है। बाहरी आचार-व्यवहार, वेशभूषा और रूप-रंग को साधना एक सरल प्रक्रिया हो सकती है, लेकिन मन को साधना एक कठिन और गहन प्रक्रिया है। साधू वह होते हैं, जिनका जीवन सांसारिक बंधनों से मुक्त होता है और जिनका मन हमेशा ध्यान, साधना, और ब्रह्मज्ञान में लीन रहता है। उनका जीवन पूरी तरह से आत्म-नियंत्रण, त्याग, और साधना से भरपूर होता है। लेकिन हम साधारण मनुष्यों के लिए यह कार्य बहुत चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
उन्होंने कहा कि मन को मंदिर बनाने के लिए, सबसे पहले आत्म-निरीक्षण और खुद की सोच पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है। हमें अपने विचारों की स्वच्छता और शुद्धता पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। साधना, ध्यान, और भक्ति के माध्यम से मन की शांति प्राप्त की जा सकती है। एक साधु जैसा मन उस व्यक्ति का होता है, जो न केवल बाहरी रूप से बल्कि अंदर से भी संतुष्ट और शांत होता है। जब हम अपने भीतर के विकारों को दूर कर लेते हैं, तभी हम अपनी आत्मा को पवित्र बना सकते हैं, और तब वह वास्तविक मंदिर बन जाता है।
अंत में, यह कहना गलत नहीं होगा कि मंदिर का वास्तविक रूप हमारे भीतर ही है। बाहरी मंदिर में भगवान की पूजा करने के बजाय, हमें अपने भीतर स्थित परमात्मा की पूजा करनी चाहिए, जो हमें शांति, प्रेम, और सत्य का मार्ग दिखाता है।
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