नित्य संदेश ब्यूरो
मेरठ. अब समय आ गया है कि आलोचक और कथाकार सोचें और गणना करें कि उर्दू लेखकों ने दलित साहित्य लिखने में इतना विलंब क्यों किया। हालांकि सगीर रहमानी, अहमद सगीर और ग़ज़नफ़र आदि ने दलित साहित्य पर काफ़ी काम किया है, लेकिन दलित साहित्य पर लिखने और उसके मुद्दों को उठाने की अभी भी बहुत ज़रूरत है। ये शब्द थे प्रख्यात आलोचक प्रोफ़ेसर सगीर अफ़्राहीम के, जो उर्दू विभाग,चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय और इंटरनेशनल यंग उर्दू स्कॉलर्स एसोसिएशन (आईवाईयूएसए) द्वारा आयोजित साप्ताहिक कार्यक्रम अदबनुमा में "नए उपन्यासों में दलित मुद्दे" विषय पर अपना अध्यक्षीय भाषण दे रहे थे।
कार्यक्रम की शुरुआत सईद अहमद सहारनपुरी ने पवित्र कुरान की तिलावत से हुई। अध्यक्षता का दायित्व प्रसिद्ध लेखक और आलोचक प्रो. सगीर अफ्राहीम ने निभाया। कश्मीर विश्वविद्यालय की उर्दू विभागाध्यक्ष प्रो. आरिफा बुशरा, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. मिथुन कुमार और प्रसिद्ध कथाकार डॉ. अहमद सगीर ने अतिथि के रूप में भाग लिया। उर्दू विभाग चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से डॉ. अलका वशिष्ठ, दिल्ली विश्वविद्यालय से जबीहुल्लाह और दिल्ली विश्वविद्यालय से आमिर अब्बास, कश्मीर विश्वविद्यालय के प्रो. डॉ. एस.पी. शर्मा ने वक्ताओं के रूप में भाग लिया, जबकि ए.यू.एस.ए. की अध्यक्ष प्रो. रेशमा परवीन ने इज़हारे ख्याल किया। स्वागत एम. द्वितीय वर्ष की छात्रा फरहाना ने तथा संचालन डॉ. इरशाद स्यानवी ने किया।
प्रोफेसर असलम जमशेदपुरी ने कहा कि उर्दू में कई उपन्यास और लघु कथाएं हैं जिनमें दलित मुद्दे अक्सर उठते हैं। दलित मुद्दे हिंदी, तमिल, तेलुगु आदि अन्य भाषाओं में अधिक दिखाई देते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से, वे अन्य भाषाओं की तुलना में उर्दू में कम दिखाई देते हैं। "दिव्य बानी" में दलित मुद्दों को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया है। इस विषय पर उर्दू सहित अन्य भाषाओं में भी अधिक लिखा जा रहा है।
प्रख्यात कथाकार डॉ. अहमद सगीर ने कहा कि दलित गरीबी का पर्याय है। धार्मिक दृष्टि से मुसलमानों में कोई दलित नहीं है। जाति व्यवस्था मनुष्य की ही देन है और मुसलमान भी इससे अछूते नहीं हैं। उनमें भी मतभेद दिखने लगे हैं। दलितों ने भी अपनी समस्याओं को लेकर खूब आंदोलन किए हैं। दलितों के नाम पर सरकार से मिलने वाली सहायता को भी लोग पचा लेते हैं और दलितों की कई समस्याएं अनुत्तरित रह जाती हैं।
प्रोफेसर मिथुन कुमार ने कहा कि आज का दलित पहले का शूद्र नहीं है। मुस्लिम राजाओं में ऐसा कोई नहीं था जो दलितों के मुद्दों की परवाह करता हो। जिस व्यक्ति को जाति के आधार पर परेशान किया जाता है उसे दलित कहा जाता है। दलित लोगों के दर्द को समझना और उनकी समस्याओं का समाधान करना आसान काम नहीं है, इसलिए हमें उनका गहराई से अध्ययन करना होगा।
प्रोफेसर आरिफा बुशरा ने कहा कि समय चाहे कितना भी आगे बढ़ जाए, आज विज्ञान और कंप्यूटर का युग है। आज के युग में ऐसे कार्यक्रमों का होना बहुत जरूरी है। उपन्यास में दलित मुद्दों पर चर्चा करने से पहले इसकी अर्थगत काव्यात्मकता को समझना आवश्यक है। दलित एक ऐसा वर्ग है जिसे दबाया गया है। दलित समुदाय को शैक्षणिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से उपेक्षित किया गया। दलित साहित्य जीवन की इच्छाओं का साहित्य है।
प्रोफेसर रेशमा परवीन ने कहा कि आज दलित मुद्दों पर बहुत अच्छी चर्चा हुई। दलित साहित्य एक सच्चे कलाकार द्वारा अपने अनुभव के आधार पर लिखा जाता है। यह बहुत अच्छी बात है कि कोई उपन्यासकार विकट परिस्थितियों में दलित मुद्दों पर प्रकाश डालता है।
इस अवसर पर आमिर अब्बास ने 1980 के बाद उर्दू उपन्यासों में दलित मुद्दों पर , जबीहुल्लाह ने अपने उपन्यास “चमरा सर” में दलित मुद्दों पर और डॉ. अलका वशिष्ठ ने “ दलित साहित्य में नारी” लेख प्रस्तुत किए। जिसे सभी अतिथियों एवं कार्यक्रम के दर्शकों एवं दर्शकों ने खूब सराहा।
कार्यक्रम में डॉ. शादाब अलीम, डॉ. आसिफ अली, डॉ. अरशद इकराम, मुहम्मद शमशाद एवं छात्र-छात्राएं शामिल थे।
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