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Tuesday, February 11, 2025

कुंभ व गंगा यात्रा और इलाहाबादी होने का गर्व: सैयद ज़फ़र हुसैन


नित्य संदेश। इलाहाबाद में हो रहे कुंभ की चर्चा पूरे विश्व में हो रही है, यह हमारे विशेषकर मेरे जैसे इलाहाबादी लोगों के लिए गर्व की बात है, क्योंकि इलाहाबाद का बच्चा-बच्चा हमेशा ही कुंभ से किसी ना किसी रूप से जुड़ा है।

यहां कुंभ स्नान के लिए आते श्रृद्धालुओं के लिए हर रास्ते पर यहाँ इलाहाबादी लोग लंगर चलाते हैं, मुफ्त में खाना पीना और चाय के साथ रहने के लिए अपने स्तर से कोई ना कोई व्यवस्था करते हैं, कहीं कोई कंबल बांटता है तो कोई कहीं उन्हें रिक्शा से कुंभ तक पहुंचाता है, इसमें मुसलमान भी बराबरी से शामिल होते रहे हैं। दरअसल इलाहाबाद शहर को तीन तरफ़ से घेरते हुए शहर के पूर्वी छोर पर दो-तीन नदियां आकर संगम करतीं हैं, गंगा, यमुना और विलुप्त सरस्वती, इसी लिए इसे त्रिवेणी संगम भी कहा जाता है।

नदियों का इतिहास, इनका भूगोल और कुंभ:  
दरअसल, गंगा नदी के छः उद्गम स्थल हैं और उत्तराखंड स्थित हिमालय के पहाड़ों से रिस कर छः  जल धाराएं नीचे ज़मीन पर उतरती हैं। गंगोत्री से भागीरथी नदी की धारा, केदारनाथ से मंदाकिनी नदी की धारा , बद्रीनाथ से अलकनंदा नदी की धारा, धौलीगंगा नदी की धारा , नंदाकिनी नदी की धारा, और पिंडार गंगा की धारा।
अवगत हो कि यहां उद्गम स्थल से निकली इन सभी धाराओं में कोई भी धारा "गंगा" नाम की नहीं है , यह अपने अलग-अलग नामों से उपरोक्त पहाड़ों से बहते हुए नीचे उतरती हैं। इन नदियों में पहला संगम होता है "विष्णु प्रयाग" स्थान पर, दरअसल शास्त्रों में तमाम नाम के "प्रयाग" नाम इन्हीं जगहों के लिए प्रयोग किया गया है। 
"विष्णु प्रयाग" में धौली गंगा नदी अलकनंदा नदी से मिलकर विलुप्त हो जाती है और यहां से अलकनंदा नदी आगे बढ़ती है, और "नंदप्रयाग" में आकर नंदाकिनी नदी को खुद में समाहित कर लेती है , फिर आगे आता है "कर्ण प्रयाग" और यहां पिंडार गंगा अलकनंदा नदी में समाहित हो जाती है और इस तरह बद्रीनाथ की चोटियों से निकली सभी चारों धाराएं "कर्ण प्रयाग" में आकर एक "अलकनंदा नदी" हो जातीं हैं।
वहीं कर्ण प्रयाग से सभी 4 नदियों को समेटे अलकनंदा नदी आगे बढ़ती है और "रुद्रप्रयाग" पहुंचती है जहां केदारनाथ से निकल कर आ रही "मंदाकिनी नदी" का संगम हो जाता है , मंदाकिनी नदी विलुप्त हो जाती है और यहां से 5 नदियों को समेटे "अलकनंदा नदी" आगे बढ़ती है। 
और फिर आता है "देवप्रयाग" जो टिहरी गढ़वाल जिले में स्थित है, अलकनंदा नदी यहां पहुंचती है और गंगोत्री से सीधे आ रही "भागीरथी नदी" से मिलती है और यहीं दोनों नदियां मिलकर "गंगा" बन जाती हैं और यहीं देवप्रयाग मे "गंगा" नदी का जन्म होता है‌ और 6 नदियों को समेटे "गंगा" ऋषिकेश में समतल धरती पर उतरकर हरिद्वार के लिए बढ़ती है।
सभी नदियों के संगम वाले पांचों स्थल को शास्त्रों में "पंच प्रयाग" कहा जाता है, जिसमें 1- विष्णु प्रयाग, 2-नंदप्रयाग 3-कर्ण प्रयाग 4-रूद्र प्रयाग और 5- देव प्रयाग।
जिन पहाड़ों से यह नदियां निकलीं उन पहाड़ों की संरचना को शिव के केश के अनूरूप माना जाता है और इस तरह गंगा को धार्मिक आधार पर शिव के केश से निकला माना जाता है।
हरिद्वार से निकली गंगा, बिजनौर, नरौरा, फर्रूखाबाद, कन्नौज कानपुर और फतेहपुर से होते हुए "इलाहाबाद" पहुंचती है। और उधर गंगोत्री से 222 किमी दूर पहाड़ से यमुनोत्री नदी निकलती है और वह गौतमबुद्ध नगर में "हिंडन नदी" को अपने में समाहित करती है फिर दिल्ली से आगे बढ़ते हुए इटावा ज़िले के मुरादगंज के पास "चंबल नदी" को अपने में समाहित करती है फिर जालौन में "सिंध नदी" को अपने में समेटती है, हमीरपुर में बेतवा नदी और अंत में बांदा ज़िले के चिल्ला घाट पर "केन नदी" से मिलते हुए इलाहाबाद आती है और गंगा में समाहित हो जाती है और यहीं यमुना का सफ़र ख़त्म हो जाता है।

हिमालय की चोटियों से निकल कर बहती नदियों का अंतिम संगम स्थल इलाहाबाद है। इसके बाद मिर्ज़ापुर, वाराणसी के बाद गंगा नदी में "गोमती नदी" गाज़ीपुर में समाहित होती है और फिर छपरा में "घाघरा नदी" इसमें डूब जाती है।
छपरा से होते हुए गंगा नदी पटना पहुंचती है जिसमें "सोन नदी" आकर समाहित हो जाती है। इसके बाद गंगा आगे बढ़ती है तो हाजीपुर पहुंचती है जहां "गंडक नदी" उसका इंतज़ार कर रही होती है और गंगा उसे गले लगाते हुए आगे बढ़ती है, और भागलपुर में "कोसी नदी" को अपने में समेट लेती है और फरक्का बैराज के पानी को समेटे अंतिम नदी "हुबली" को कलकत्ता में समेटते हुए 17 नदियों के साथ "गंगा नदी" गंगा सागर और फिर बंगाल की खाड़ी में जाकर समाहित हो जाती है। इन 17 नदियों को खुद में समाहित करके सागर में समाहित होने के कारण ही गंगा "मां गंगा" है।
चुंकि हिमालय पर्वत के शिव के समान चोटियों से निकली नदियों का अंतिम संगम स्थल इलाहाबाद है इसलिए यहां का महत्व सबसे अधिक है और ऐसा माना जाता है कि जब देवताओं और असुरों में समुद्र मंथन हुआ था तो उस कलश अथवा कुंभ से अमृत की कुछ छींटे चार जगहों पर पड़ी उनमें एक जगह "त्रिवेणी संगम" है , शेष हैं हरिद्वार, नासिक, उज्जैन।

हिन्दू पंचांग के अनुसार बृहस्पति और सूर्य जैसे खगोलीय पिंडों की स्थिति का आकलन करके अर्धकुंभ , कुंभ और महाकुंभ का आयोजन किया जाता है। मगर पिछले कुछ सालों से हिंदू पंचांग के विपरित, अर्धकुंभ को कुंभ और कुंभ को महाकुंभ घोषित किया जा रहा है और ऐसे हर कुंभ को 140 साल बाद वाला कुंभ माना जा रहा है जबकि ये  हिन्दू पंचांग से प्रमाणित नहीं होते। हिंदू पंचांग के द्वारा बृहस्पति और सूर्य के खगोलीय आकलन से माना जाता है कि यह संयोग त्रिवेणी संगम के पानी को अत्यधिक दिव्य ऊर्जा से भर देते हैं। इसीलिए इस स्थान पर आकर लोग संगम के पानी से सूर्य को अर्क देते हैं। 

मान्यताओं के अनुसार, यह विशिष्ट संयोग कुंभ मेले के दौरान किए जाने वाले अनुष्ठानों की आध्यात्मिक शक्ति को बढ़ाते हैं और हिंदुओं के लिए इस शुभ समय पर गंगा, यमुना और रहस्यमयी सरस्वती नदियों का संगम शुद्धिकरण और आध्यात्मिक नवीनीकरण के लिए एक शक्तिशाली क्षण होता है। श्रृद्धालू त्रिवेणी संगम के जल में पवित्र डुबकी लगाने के लिए उमड़ पड़ते हैं, क्योंकि उनका धार्मिक विश्वास है कि इस दुर्लभ संयोग के दौरान ऐसा करने से पाप धुल जाते हैं तथा पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति (मोक्ष) मिलती है।

लेखक 
सैयद ज़फ़र हुसैन 
सुभारती विश्वविद्यालय में दूरस्थ शिक्षा कुलसचिव है

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